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लक्ष्य बैडमिंटन मैच हारने पर रोते थे:5 साल की उम्र में रैकेट थामा, बड़ों के साथ प्रैक्टिस करते; अब ओलिंपिक मेडल के दावेदार

लक्ष्य सेन पेरिस ओलिंपिक के बैडमिंटन में भारत को मेडल दिलाने की इकलौती उम्मीद हैं। 22 साल के युवा शटलर ने मेंस सिंगल्स के सेमीफाइनल में जगह बनाई है। आज जीतते ही वह ओलिंपिक इतिहास में भारत को मेंस कैटेगरी का पहला बैडमिंटन मेडल दिला देंगे। लक्ष्य अपना पहला ही ओलिंपिक खेल रहे हैं। उनका सेमीफाइनल दोपहर 12 बजे से डेनमार्क के विक्टर एक्सलसेन के खिलाफ होगा। लक्ष्य का जन्म उत्तराखंड के अलमोड़ा में हुआ, उनके भाई, पिता और दादा भी बैडमिंटन प्लेयर ही रहे। लक्ष्य 5 साल की उम्र से बैडमिंटन खेल रहे हैं और बड़ों के खिलाफ हारने पर दुखी होकर रोने लग जाते थे। वह अब देश को ओलिंपिक मेडल दिला सकते हैं। स्टोरी में जानेंगे, उनके अचीवमेंट्स और स्ट्रगल स्टोरी… पिता और दादा भी बैडमिंटन प्लेयर
16 अगस्त, 2001। उत्तराखंड के अलमोड़ा में बैडमिंटन प्लेयर डीके सेन के घर लक्ष्य का जन्म हुआ। लक्ष्य के परिवार में बैडमिंटन की जड़ें आजादी से भी पहले की है। उनके दादा चंद्र लाल सेन दिग्गज बैडमिंटन खिलाड़ी रहे। जिस कारण डीके ने भी बैडमिंटन खेला और उनके दोनों बेटों चिराग और लक्ष्य ने भी बचपन से ही बैडमिंटन को करियर बना लिया। 5 साल की उम्र में पहुंचे बैडमिंटन कोर्ट
खेलप्रेमी परिवार से होने के चलते 5 साल की उम्र में ही लक्ष्य अपने दादाजी के साथ अलमोड़ा के बैडमिंटन कोर्ट पहुंच गए। शहर में कोर्ट भी लक्ष्य के दादाजी ने ही बनवाया था, लेकिन कम सुविधाएं होने के कारण डीके सेन वहां से इंटरनेशनल लेवल तक नहीं पहुंच सके। पिता और दादा के स्ट्रगल ने लक्ष्य का रास्ता आसान किया। स्कूल शुरू होते ही उन्होंने अपने बड़े भाई चिराग के साथ रेगुलर बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया। बेटे को ट्रैडिशनल बैडमिंटन नहीं सिखाई
डीके सेन प्रोफेशनल बैडमिंटन कोच हैं। उन्होंने अपने बैटों को ट्रैडिशनल ट्रेनिंग नहीं दी, जिसमें सर्विस सिखाने से ट्रेनिंग शुरू होती है। डीके ने अपने बेटों के साथ नॉर्मल बैडमिंटन खेलना शुरू किया, जैसे गलियों में भारत के बच्चे खेला करते हैं। ऐसा उन्होंने इसलिए किया, ताकि लक्ष्य की बैडमिंटन पर पकड़ बन सके। डीके का मानना है कि ऐसा करने से लक्ष्य मेंटली मजबूत हुआ। लक्ष्य को इस दौरान उन्होंने छोटी-छोटी बैडमिंटन ड्रिल्स भी कराई। जिससे लक्ष्य पूरे कोर्ट को तेजी से कवर करना सीखे। बैडमिंटन में यह ड्रिल्स सबसे जरूरी हैं, लेकिन यह तभी की जाती है, जब प्लेयर को स्ट्रोक्स खेलने की आदत होती है। जबकि लक्ष्य ने पहले दिन से ही इन ड्रिल्स की आदत डाल ली थी। डीके का कहना सिंपल है, ‘बैडमिंटन में स्ट्रोक खेलने के लिए आपको शटल के पीछे पहुंचना ही होगा। अगर शटल आपके शरीर के पीछे रह गई तो आप शॉट कैसे खेलोगे? युवा प्लेयर्स के लिए जरूरी है कि वह रनिंग बहुत करें। स्प्रिंटिंग भी जरूरी है, क्योंकि आपको कोर्ट पर स्पीड चाहिए होती है।’ डिफेंड करने की भी इंटेंस प्रैक्टिस कराई
शुरुआत में ही डीके ने दोनों भाइयों के डिफेंड करने की स्किल पर भी काम किया। सीनियर प्लेयर्स के साथ दोनों के मैच कराए, ताकि वह स्मैश से डरे नहीं और उन्हें आसानी से डिफेंड कर सके। उनकी कोचिंग स्किल की आलोचना भी हुई, लेकिन आज इन्हीं स्किल्स से लक्ष्य को सफलता मिल रही है। डीके बताते हैं, ‘लक्ष्य को ​​​​​​अपनी उम्र से ​बड़े प्लेयर्स के साथ खेलने की आदत लग गई। वह अपने स्कूल में भी बड़ों की टीम का हिस्सा बनता। यहां तक कि बड़े बच्चों के कल्चरल प्रोग्राम में भी लक्ष्य आगे होकर हिस्सा लेते थे। टीचर उसे मना करते, लेकिन वह जिद करता और किसी तरह पार्टिसिपेट कर ही लेता था।’ पिता ने दोनों भाइयों को भेजा बेंगलुरु
उत्तराखंड में ज्यादा इम्प्रूवमेंट नहीं मिलते देख पिता ने 7 साल के लक्ष्य को चिराग के साथ बेंगलुरु भेजा। जहां प्रकाश पादुकोण एकेडमी में लक्ष्य अपनी बैडमिंटन स्किल्स को नई ऊंचाइयों पर ले गए। हालांकि, दादा अपने पोते लक्ष्य को सफल होते नहीं देख सके, 2013 में उनका निधन हो गया। लेकिन दादा अपने पोते में बैडमिंटन की आग जला चुके थे। मां बोलीं, हारने पर रोता था लक्ष्य
लक्ष्य की मां निर्मला ने एक इंटरव्यू में कहा है, ‘लक्ष्य को छोटी उम्र में बड़ी उम्र के लड़के हरा देते थे। वह हार से दुखी होकर रोता रहता था, लेकिन फिर भी बैडमिंटन खेलता। हारना उसे कभी पसंद नहीं था, उसमें हमेशा से जीतने की जिद थी।’ उनकी मां बताती हैं कि दोनों भाई पढ़ाई में भी तेज हैं। इंटरनेशनल टूर्नामेंट्स के बीच भी लक्ष्य उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी से अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर रहा है। सुबह 4:30 बजे ट्रेनिंग करते थे लक्ष्य
पिता कहते हैं, ‘लक्ष्य की ट्रेनिंग सुबह 4:30 बजे से शुरू हो जाती थी। दोनों 2 किमी दौड़ते और 200 मीटर स्प्रिंट भी करते। मैं उसे हमेशा चैलेंज करता था ताकि वह तेज भागे, लेकिन मैं जानबूझकर उससे हार भी जाता था। वह बहुत जिद्दी है और जीतने के लिए बहुत मेहनत करता है।’ इसी जिद से 2014 में लक्ष्य ने स्विज जूनियर इंटरनेशनल के रूप में अपना पहला जूनियर खिताब जीता। 2016 में जीती पहली सीनियर चैंपियनशिप
2016 तक लक्ष्य ने कई जूनियर चैंपियनशिप अपने नाम की। एशियन चैंपियनशिप में ब्रॉन्ज मेडल जीतना जूनियर लेवल पर उनकी बेस्ट परफॉर्मेंस रही। 2016 में ही उन्होंने सीनियर चैंपियनशिप खेलना शुरू कर दी और इसी साल इंडिया इंटरनेशनल सीरीज के रूप में अपना पहला सीनियर टूर्नामेंट जीता। यूथ ओलिंपिक में गोल्ड जीतकर बनाई पहचान
2018 में लक्ष्य ने यूथ ओलिंपिक्स का गोल्ड जीता और यहीं से बैडमिंटन जगत में उनकी नई पहचान बन गई। वह 2022 में थॉमस कप जीतने वाली टीम इंडिया का हिस्सा भी रहे। 2022 के ही कॉमनवेल्थ गेम्स में उन्होंने गोल्ड जीता। कॉमनवेल्थ के ही टीम इवेंट में उन्होंने सिल्वर भी अपने नाम किया। लक्ष्य ने BWF वर्ल्ड टूर के 4 और इंटरनेशनल सीरीज के 7 खिताब जीते हैं। 2022 में 20 साल की उम्र में ही उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से भी नवाजा गया था। लक्ष्य अब अपने डेब्यू ओलिंपिक में ही मेडल जीतकर इतिहास रच सकते हैं। पेरिस में शुरुआती 4 मैच 2-2 गेम में ही जीते
पेरिस ओलिंपिक से पहले लक्ष्य ने BWF के ज्यादातर टूर्नामेंट खेले। इंडोनेशिया ओपन के रूप में उन्होंने आखिरी टूर्नामेंट खेला, जिसमें वह क्वार्टर फाइनल हार गए। वह एकेडमी पहुंचे और पेरिस ओलिंपिक की तैयारी में जुट गए। पेरिस में उन्होंने ग्रुप स्टेज में तीनों मैच 2 ही गेम में जीत लिए। प्री क्वार्टर फाइनल भी 2 गेम में जीता, फिर क्वार्टर फाइनल 3 गेम में जीतकर सेमीफाइनल में भी जगह बना ली। अगर लक्ष्य आज का मैच जीतने में कामयाब रहते हैं तो 2024 में यह उनका पहला ही फाइनल होगा। साथ ही यह ओलिंपिक के बैडमिंटन इतिहास में भारत का पहला ही मेंस कैटेगरी का मेडल भी होगा।Read More

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